मुन्ना ऐसा मत करो, मत रोओ, खाना खालो, क्या चाहिए बोलो तुम्हारे पिताजी ला देंगे, अभी चूप हो जाओ। मुन्ना चुप होने का नाम नहीं ले रहा था। उसको भी वही रिमोट वाला कार चाहिए जो कि पड़ोस में रहने वाला टिंकू के पास है। लड़का खाना नहीं खा रहा था, रूठ के बैठा था। उसको चाहिए तो बस चाहिए। जिद्द पे अड़ गया। माँ- बाप ज्यादा बोल नहीं सकते क्योकि एकलौता लड़का था। लाड - प्यार बहुत था।
पिताजी ऑफिस से आये। मनाने की कोशिश की, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। अनन्तः उनको उसी वक़्त पास के बाजार से रिमोट कंट्रोल वाला कार लाना पड़ा। मुन्ना खिलौना देखकर चुप हुआ, और खाना खाने लगा। लेकिन भरपेट खाना नहीं खा पाया क्योकि उसका ध्यान खिलौने पे था।
कुछ दिन खेला, फिर वही रोना धोना। नए नए दिन नई नई फरमाइसे। उसके माँ बाप हर संभव प्रयास करते की मुन्ना किसी तरह से खुश रहे, परन्तु मुन्ना को तो रोने और रूठने की आदत पड़ चुकी थी। वह किसी भी चीज़ से खुश नहीं रहता था।
बड़ा हुआ, लेकिन रोने की आदत गयी नहीं। बच्चो की तरह तो आँसू बहा नहीं सकता था, लेकिन हमेशा उदास रहता था। दुनिया में कोई भी ऐसी चीज़ नहीं थी, जो उसको ख़ुशी दे सकती थी। कुछ भी उसके अनुसार नहीं था। सब कुछ बदलना चाहता था।
धन दौलत भी बहुत था उसके पास, उस पैसे से जो भी विलासता की वस्तू खरीदना चाहता था खरीद सकता था। फिर भी वह खुश न था। आप पैसे से वस्तू खरीद सकते है, मगर ख़ुशी नहीं।
इस दुनिया को बदलने के चक्कर में कितने लोग आये और गये, दुनिया तो बदल नहीं पाए, परन्तु जीवन व्यर्थ हो गयी। इसका भी जीवन की लीला इसी तरह समाप्त हो गयी।
उसके पास वह सब कुछ था, अच्छे माँ -बाप, निरोग शरीर, पर्याप्त पैसा इत्यादि, जिससे एक खुशहाल जिन्दगी जिया जा सकता था। लेकिन दुनिया बदलने के चक्कर में खुद ही वह काल के चक्कर में फस के ख़त्म हो गय।
रोता हुआ आया, रोता हुआ जिया, और रोता हुआ दुनिया से अलविदा हो गया।
काश ! वह दुनिया बदलने के वजाय खुद को बदल लिया होता। दुनिया को सिखाने के वजाय खुद जिंदगी के मायने सिख लिया होता। रोने के वजाय हॅसने की आदत डाल ली होती, तो शायद, उसकी जिंदगी दुःख में नहीं सुख में बीतती।
इस संसार में सुख और दुःख, ख़ुशी और ग़म हमेशा से रहे है, और हमेशा ही रहगे। यह शाश्वत है, इसको संसार से खत्म नहीं किया जा सकता। संसार नामक गाड़ी सकारात्मक और नकारात्मक नामक दो पहियों पर ही चलती है। विरोधाभास ही इस श्रुष्टि की प्राण है। दोनों ही सामान मात्रा में उपलब्ध है। निर्णय हमको लेना होता है कि हम किसका चुनाव कर रहे है - सकारात्मक या नकारात्मक, सुःख या दुःख, ख़ुशी या ग़म।
मनुष्य की जिंदगी बहुत कम होती है, इसको व्यर्थ की दुःख इकठ्ठा करने में व्यतीत करना चाहिए। नहीं तो रोते हुए आये हो, रोते हुए जिओगे, और रोते हुए इस दुनिया से अलविदा हो जाओगे।
इस संसार में सबको मरना होता है - लेकिन बुद्धू रो-रो के और मर-मर के जीता है, और बुद्धा अपनी जिंदगी पूर्णता से जी कर मरता है।
जन्म और मरण का चुनाव हमारे वश में नहीं होता है, लेकिन जिंदगी कैसी हो और हमको कैसे जीना है, यह चुनाव हमारे वश में होता है। इसका चुनाव एक बुद्धा की कर सकता है, बुद्धू नहीं। बुद्धा को हर पल अपने मृत्यु का एहसास होता है, इसलिए वह अपनी जिंदगी को हर क्षण पूर्णता से जीता है। जिंदगी का एक पल भी व्यर्थ गवाना उसको गवारा नहीं।
और बुद्धू हर पल रो-रो के जीता है, और रो-रो मरता है, उसको पता ही नहीं होता, क्यों आया और क्या ढूंढ रहा था, और क्या पाया और क्यों चला गया।
यह मनुष्य का अपना व्यक्तिगत चुनाव है कि बुद्धा बनकर खुशहाल जिंदगी जीना चाह्ता है या बुद्धू बनकर रो-रो के।
पिताजी ऑफिस से आये। मनाने की कोशिश की, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। अनन्तः उनको उसी वक़्त पास के बाजार से रिमोट कंट्रोल वाला कार लाना पड़ा। मुन्ना खिलौना देखकर चुप हुआ, और खाना खाने लगा। लेकिन भरपेट खाना नहीं खा पाया क्योकि उसका ध्यान खिलौने पे था।
कुछ दिन खेला, फिर वही रोना धोना। नए नए दिन नई नई फरमाइसे। उसके माँ बाप हर संभव प्रयास करते की मुन्ना किसी तरह से खुश रहे, परन्तु मुन्ना को तो रोने और रूठने की आदत पड़ चुकी थी। वह किसी भी चीज़ से खुश नहीं रहता था।
बड़ा हुआ, लेकिन रोने की आदत गयी नहीं। बच्चो की तरह तो आँसू बहा नहीं सकता था, लेकिन हमेशा उदास रहता था। दुनिया में कोई भी ऐसी चीज़ नहीं थी, जो उसको ख़ुशी दे सकती थी। कुछ भी उसके अनुसार नहीं था। सब कुछ बदलना चाहता था।
धन दौलत भी बहुत था उसके पास, उस पैसे से जो भी विलासता की वस्तू खरीदना चाहता था खरीद सकता था। फिर भी वह खुश न था। आप पैसे से वस्तू खरीद सकते है, मगर ख़ुशी नहीं।
इस दुनिया को बदलने के चक्कर में कितने लोग आये और गये, दुनिया तो बदल नहीं पाए, परन्तु जीवन व्यर्थ हो गयी। इसका भी जीवन की लीला इसी तरह समाप्त हो गयी।
उसके पास वह सब कुछ था, अच्छे माँ -बाप, निरोग शरीर, पर्याप्त पैसा इत्यादि, जिससे एक खुशहाल जिन्दगी जिया जा सकता था। लेकिन दुनिया बदलने के चक्कर में खुद ही वह काल के चक्कर में फस के ख़त्म हो गय।
रोता हुआ आया, रोता हुआ जिया, और रोता हुआ दुनिया से अलविदा हो गया।
काश ! वह दुनिया बदलने के वजाय खुद को बदल लिया होता। दुनिया को सिखाने के वजाय खुद जिंदगी के मायने सिख लिया होता। रोने के वजाय हॅसने की आदत डाल ली होती, तो शायद, उसकी जिंदगी दुःख में नहीं सुख में बीतती।
इस संसार में सुख और दुःख, ख़ुशी और ग़म हमेशा से रहे है, और हमेशा ही रहगे। यह शाश्वत है, इसको संसार से खत्म नहीं किया जा सकता। संसार नामक गाड़ी सकारात्मक और नकारात्मक नामक दो पहियों पर ही चलती है। विरोधाभास ही इस श्रुष्टि की प्राण है। दोनों ही सामान मात्रा में उपलब्ध है। निर्णय हमको लेना होता है कि हम किसका चुनाव कर रहे है - सकारात्मक या नकारात्मक, सुःख या दुःख, ख़ुशी या ग़म।
मनुष्य की जिंदगी बहुत कम होती है, इसको व्यर्थ की दुःख इकठ्ठा करने में व्यतीत करना चाहिए। नहीं तो रोते हुए आये हो, रोते हुए जिओगे, और रोते हुए इस दुनिया से अलविदा हो जाओगे।
इस संसार में सबको मरना होता है - लेकिन बुद्धू रो-रो के और मर-मर के जीता है, और बुद्धा अपनी जिंदगी पूर्णता से जी कर मरता है।
जन्म और मरण का चुनाव हमारे वश में नहीं होता है, लेकिन जिंदगी कैसी हो और हमको कैसे जीना है, यह चुनाव हमारे वश में होता है। इसका चुनाव एक बुद्धा की कर सकता है, बुद्धू नहीं। बुद्धा को हर पल अपने मृत्यु का एहसास होता है, इसलिए वह अपनी जिंदगी को हर क्षण पूर्णता से जीता है। जिंदगी का एक पल भी व्यर्थ गवाना उसको गवारा नहीं।
और बुद्धू हर पल रो-रो के जीता है, और रो-रो मरता है, उसको पता ही नहीं होता, क्यों आया और क्या ढूंढ रहा था, और क्या पाया और क्यों चला गया।
यह मनुष्य का अपना व्यक्तिगत चुनाव है कि बुद्धा बनकर खुशहाल जिंदगी जीना चाह्ता है या बुद्धू बनकर रो-रो के।
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