भगवत गीता के पहले अध्याय के पहले श्लोक में धृष्टराष्ट्र संजय से पूछता है -
"धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय। "
इसमें कुरुक्षेत्र को धर्मक्षेत्र कहा गया है। अगर यह धर्मक्षेत्र है तो लड़ाई क्यों ? लड़ाई नहीं होने चाहिए, लेकिन हो रहा है। सदियो से धर्मक्षेत्र ही कुरुक्षेत्र बनते आये है। धर्मक्षेत्र में ही युद्ध होता है, और कही नहीं। यह विराधाभास मालूम पड़ता है कि धर्मक्षेत्र और युद्ध? उपद्रव? रक्तपात ? एक दूसरे के गले काटने के लिए हाथो में हथियार? ऐसा हो रहा है। आज तक कोई भी युद्ध धर्म से परे नहीं हुआ है। जहा धर्म है, वही युद्ध की संभावना है, और होता भी है। धर्म के नाम पर ही बड़े-बड़े युद्ध हुए है. रक्तपात हुआ है। जितना जान-माल और वातावरण का विध्वंश धर्म के नाम पे हुआ है, उससे ज़्यादा किसी से नहीं हुआ है। जितना ठगी और लूट-पाट धर्म के नाम पे हुआ है, उससे ज़्यादा कही नहीं हुआ है।
कभी भी अधर्म के नाम पे कही कोई लड़ाई नहीं हुई है। सारी लड़ाईया धर्म के नाम पे ही होती है। और जहाँ धर्म के नाम पे लड़ाईया हो, वह धर्म हो ही नहीं सकता। कुरुक्षेत्र तो बस एक नाम का धर्मक्षेत्र है। यह धर्मक्षेत्र तो अधर्मक्षेत्र से भी बदतर है। अपने ही परिवार के लोग एक दूसरे को मार-काट रहे है, इससे बड़ा अधर्म और क्या होगा? खून से लथ-पथ सनी हुई कुरुक्षेत्र को धर्मक्षेत्र कहना पाखंड से ज़्यादा कुछ भी नहीं! फिर भी, सारे अधर्म इस क्षेत्र में होने के बावजूद भी इसको धर्मक्षेत्र कहा जा रहा है। कह कौन रहा है - धृष्टराष्ट्र, जो की अंधा है।
रहा होगा कभी कुरुक्षेत्र धर्मक्षेत्र। मिला होगा इस मिट्टी को कभी इतना सम्मान। लेकिन अब नहीं । जब तक धर्मक्षेत्र था, तब तक कोई लालच, द्वेष, ईर्ष्या, वैर, भेद-भाव और रक्तपात नहीं था। अब सिर्फ धर्म का नाम रह गया है, जिसको धृष्टराष्ट्र ढो रहा है। धर्म के नाम पे सदियो से अन्धविश्वाश होता आया है, इसी का प्रतीक है, धृष्टराष्ट्र। अंधे लोग उसी पुरानी चीज़ों को ढो रहे, बिना उसकी वैधता जाने।
जहा पे धर्म होता है- वहा पे तो उत्सव, उमंग, प्रेम, परस्पर निःस्वार्थ सहयोग और आनन्द की वृष्ठि होनी चाहिये, लेकिन इस धर्मक्षेत्र में तो एक ही परिवार के दो दल, एक-दूसरे के आमने-सामने, ईर्ष्या, द्वेष, वैर, लालच और घमंड के साथ रक्तपात को तैयार है। यह भी कोई धर्म है क्या? अंधो के लिए यह धर्म हो सकता है, पर उनके लिए नहीं जो धर्म को समझते है। धृष्टराष्ट्र के लिए धर्मक्षेत्र था, लेकिन विदुर जैसे महात्मा के लिए नहीं, जो धर्म और अधर्म का भेद जानते है।
अगर यह धर्मक्षेत्र है तो, फिर श्री कृष्ण किस धर्म स्थापना की बात कर रहे है। यह क्यों बोल रहे है कि धर्म स्थापना के लिए मैं युग-युग में आता रहूँगा ----
"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम्।।4.7।।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।4.8।।"
धृष्टराष्ट्र के नज़रो में धर्म था, लेकिन श्री कृष्ण के नज़रो में धर्म खत्म हो चुकी है, नाम मात्र ही रह गया है। अब उसकी पुर्नस्थापना की आवश्यकता है।
बहुत-सी धर्मिक परम्परोओं को जो आज हमारा समाज अंधो की तरह ढो रहा है, वह अब अधार्मिक हो चूका है। उसमे कोई धर्म शेष नहीं रह गया है। धर्म के नाम पे अन्धविश्वाश फ़ैल गया है। वक्त का तकाजा है कि - पुराने सारे अंधविश्वासों को तोड़कर अब इसकी पुर्नस्थापना की जाये, जहा पे परस्पर मेल और इंसानियत ज़िंदा रहे। आखिर कब-तब अन्धविश्वास के साये में धर्मक्षेत्रों को कुरुक्षेत्र बनाते रहेंगे ?
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