Published in Dainik Awantika, 21 Oct,2012
महात्मा गाँधी, मोहन दास करमचंद गाँधी से महात्मा(महान आत्मा) ऐसे हीं नहीं बन गये , बल्कि उन्होने महात्मा जैसा काम भी किया है, और महात्मा की उपाधी, जो आदमी दिया है , वे भी कोई आम आदमीं नहीं थे. वह थे, साहित्य में प्रथम नोबल प्राप्त करने वाले और राष्ट्रगान के रचयिता हमारे रवीन्द्र नाथ टैगोरे.
एक बार महात्मा गाँधी दक्षिण अफ्रीका मे ट्रेन से यात्रा कर रहे थे, उस समय गोरे और काले का भेद-भाव अपने चरम सीमा पे था. कुछ अंग्रेजो ने गाँधी जी को कॉमपार्टमेंट से बाहर फेक दिया , स्वभाविक था गुस्सा आना , लेंकिन गाँधी जी ने उस गुस्से को संकल्प मे बदल दिया , उन्होने उस समय यह संकल्प लिया कि आज तुम लोगो ने मुझें इस कॉमपार्टमेंट से बाहर फेका है, मैं तुम्हे अपने देश से बाहर फेक कर रहूँगा. उन्होने हिंसा का मार्ग नहीं चूना, अहिंसा के दायरे मे रहकर उनको अपना यह संकल्प पूरा करना था. गाँधी जी बड़े ही तथ्यात्मक और स्वभाविक व्यक्ति थे. उनकी कथनी और करनी मे थोड़ी- सी भी भिन्नता नहीं थी.
नील की खेती करने वाले किसानो पर हो रहे अत्याचार के विरुध आन्दोलन के लिये वे चम्पारन गये हुये थे. इस दौरान वे किसानो से मिल रहे थे और उनकी स्थिति से अवगत हो रहे थे. सभी लोग अपनी दम्पति के साथ गांधीजी से मिलने आये. लेकिन एक दम्पती एक-एक करके उनसे मिलने आया. गांधीजी को जिज्ञासा हुई कि आखिर यह दम्पती एक साथ क्यो नहीं आई. पुछ्ने पर पता चला कि इनके पास एक ही धोती है. इसीलिये बारी-बारी एक ही धोती को पहनकर उनसे मिलने आये. उस समय गांधीजी अच्छे सूट-बूट मे थे. उस दिन से उन्होने यह प्रतिज्ञा लिया कि वे भी आज से एक ही धोती का अंग वस्त्र बनाकर धारण करेंगे, और एक आम आदमी बनकर ही आम आदमी का नेतृत्व करेंगे.
जब उन्होने नील के मनमानी खेती पर अंग्रेजो का विरोध किया तो उस समय एक अंग्रेज़ अधिकारी, जो कि गांधीजी का सिर्फ नाम सुना था, उनको देखा नहीं था, गांधीजी को मारने का आदेश दे दिया. उस रात गांधीजी अकेले उस अधिकारी के घर पहुंच गये. उन्हे देखकर अधिकारी सहम गया और पूछा , “ कौन हो तुम”. गाँधीजी बोले, "मैं गाँधी हु, तुम मुझे ही मारने का आदेश दिये हो, मैं अभी अकेला हु, तुम चाहो तो मुझे मार सकते हो". मारने की बात तो दूर, उस अधिकारी को अपनी गलती का एहसास हो गया और वह गांधीजी का समर्थक बन गया.
गांधीजी ने अपनी आत्मकथा में अपनी जीवन के हर पहलू का जिक्र किया है , कुछ भी छुपाया नहीं है, सारी सच्चाई , चाहे अच्छी हो या बुरी, पूरी ईमानदारी के साथ दुनिया के समक्ष रख दिया है. अपने आत्मा पर उन्होने कोई भी बोझ नहीं रखा . अपनी ज़िंदगी की हर सच्चाई दुनिया के सामने रखना आसान काम नहीं हैं , इसके लिये बड़े ही हिम्मत की जरूरत होती है.
विदेश में, गांधीजी के कुछ ईसाई मित्र, अपने धर्म पुस्तक बाईबल पर चर्चा कर रहे थे. गांधीजी से उनके अपने धर्म हिन्दू के बारे में पूछा, उस समय गांधीजी को हिन्दू धर्म शास्त्रो के बारे मे ज़्यादा जानकारी नहीं थी. उनके ईसाई दोस्तो ने उनका उपहास किया कि आपको अपने धर्म के बारे मे जानकारी नहीं हैं. उस दिन गांधीजी बड़े लज्जित हुए. कुछ दिनो तक दोस्तो से मिलने नहीं गयें. जब कुछ दिनो के बाद दोस्तो से मिलने गये तो फर्राटेदार भगवत गीता के श्लोक से उन सबको आश्चर्यचकित कर दिया. उनको दंतमंजन करने मे लगभग दस मिनिट लगते थे. उस दस मिनिट का उपयोग प्रति दिन एक-एक भगवत गीता का श्लोक याद करने मे लगाया. इस तरह, समय का सही उपयोग कर उन्होने भगवत गीता का पूरा पुस्तक पढ लिया.
गांधीजी सारे धर्मो मे एकता देखना चाहते थे. उनको किसी भी प्रकार की राजनैतिक पद या आर्थिक लालसा नहीं थी. वे हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के विभाजन के पक्ष मे कदापि नहीं थे. उन्होने कहा भी था कि हिन्दुस्तान और पाकिस्तान का विभाजन मेरे आंखो सामने नहीं हो सकता . जब गांधीजी हिन्दू -मुस्लिम ज़ंग को सुलझाने के लिये बंगाल गये हुए थे, तभी ईधर दिल्ली मे नेहरू जी और जिन्ना साहब के समर्थको ने गांधीजी के अनुपस्थिति मे देश के बटवारे पर मुहर लगा दी. आज दोनो देश करोडो रुपये सीमा की सुरक्षा पर खर्च करते है.
गांधीजी ने आज़ादी मिलने के बाद कहा था, कि जो आज़ादी हमे मिली है वह केवल राजनैतिक आज़ादी है, अभी सामाजिक आज़ादी बाकी हैं. और जब तक हमें सामाजिक आज़ादी नहीं मिलती, तब तक हमारी यह आज़ादी अधूरी हैं. आज भी हमें हमारे देश को गाँधीजी जैसा नेतृत्व की आवश्यकता है जो हमें सामाजिक आज़ादी दिला सके, और इस अधूरेपन को पूर्ण कर सकें.
एक बार महात्मा गाँधी दक्षिण अफ्रीका मे ट्रेन से यात्रा कर रहे थे, उस समय गोरे और काले का भेद-भाव अपने चरम सीमा पे था. कुछ अंग्रेजो ने गाँधी जी को कॉमपार्टमेंट से बाहर फेक दिया , स्वभाविक था गुस्सा आना , लेंकिन गाँधी जी ने उस गुस्से को संकल्प मे बदल दिया , उन्होने उस समय यह संकल्प लिया कि आज तुम लोगो ने मुझें इस कॉमपार्टमेंट से बाहर फेका है, मैं तुम्हे अपने देश से बाहर फेक कर रहूँगा. उन्होने हिंसा का मार्ग नहीं चूना, अहिंसा के दायरे मे रहकर उनको अपना यह संकल्प पूरा करना था. गाँधी जी बड़े ही तथ्यात्मक और स्वभाविक व्यक्ति थे. उनकी कथनी और करनी मे थोड़ी- सी भी भिन्नता नहीं थी.
नील की खेती करने वाले किसानो पर हो रहे अत्याचार के विरुध आन्दोलन के लिये वे चम्पारन गये हुये थे. इस दौरान वे किसानो से मिल रहे थे और उनकी स्थिति से अवगत हो रहे थे. सभी लोग अपनी दम्पति के साथ गांधीजी से मिलने आये. लेकिन एक दम्पती एक-एक करके उनसे मिलने आया. गांधीजी को जिज्ञासा हुई कि आखिर यह दम्पती एक साथ क्यो नहीं आई. पुछ्ने पर पता चला कि इनके पास एक ही धोती है. इसीलिये बारी-बारी एक ही धोती को पहनकर उनसे मिलने आये. उस समय गांधीजी अच्छे सूट-बूट मे थे. उस दिन से उन्होने यह प्रतिज्ञा लिया कि वे भी आज से एक ही धोती का अंग वस्त्र बनाकर धारण करेंगे, और एक आम आदमी बनकर ही आम आदमी का नेतृत्व करेंगे.
जब उन्होने नील के मनमानी खेती पर अंग्रेजो का विरोध किया तो उस समय एक अंग्रेज़ अधिकारी, जो कि गांधीजी का सिर्फ नाम सुना था, उनको देखा नहीं था, गांधीजी को मारने का आदेश दे दिया. उस रात गांधीजी अकेले उस अधिकारी के घर पहुंच गये. उन्हे देखकर अधिकारी सहम गया और पूछा , “ कौन हो तुम”. गाँधीजी बोले, "मैं गाँधी हु, तुम मुझे ही मारने का आदेश दिये हो, मैं अभी अकेला हु, तुम चाहो तो मुझे मार सकते हो". मारने की बात तो दूर, उस अधिकारी को अपनी गलती का एहसास हो गया और वह गांधीजी का समर्थक बन गया.
गांधीजी ने अपनी आत्मकथा में अपनी जीवन के हर पहलू का जिक्र किया है , कुछ भी छुपाया नहीं है, सारी सच्चाई , चाहे अच्छी हो या बुरी, पूरी ईमानदारी के साथ दुनिया के समक्ष रख दिया है. अपने आत्मा पर उन्होने कोई भी बोझ नहीं रखा . अपनी ज़िंदगी की हर सच्चाई दुनिया के सामने रखना आसान काम नहीं हैं , इसके लिये बड़े ही हिम्मत की जरूरत होती है.
विदेश में, गांधीजी के कुछ ईसाई मित्र, अपने धर्म पुस्तक बाईबल पर चर्चा कर रहे थे. गांधीजी से उनके अपने धर्म हिन्दू के बारे में पूछा, उस समय गांधीजी को हिन्दू धर्म शास्त्रो के बारे मे ज़्यादा जानकारी नहीं थी. उनके ईसाई दोस्तो ने उनका उपहास किया कि आपको अपने धर्म के बारे मे जानकारी नहीं हैं. उस दिन गांधीजी बड़े लज्जित हुए. कुछ दिनो तक दोस्तो से मिलने नहीं गयें. जब कुछ दिनो के बाद दोस्तो से मिलने गये तो फर्राटेदार भगवत गीता के श्लोक से उन सबको आश्चर्यचकित कर दिया. उनको दंतमंजन करने मे लगभग दस मिनिट लगते थे. उस दस मिनिट का उपयोग प्रति दिन एक-एक भगवत गीता का श्लोक याद करने मे लगाया. इस तरह, समय का सही उपयोग कर उन्होने भगवत गीता का पूरा पुस्तक पढ लिया.
गांधीजी सारे धर्मो मे एकता देखना चाहते थे. उनको किसी भी प्रकार की राजनैतिक पद या आर्थिक लालसा नहीं थी. वे हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के विभाजन के पक्ष मे कदापि नहीं थे. उन्होने कहा भी था कि हिन्दुस्तान और पाकिस्तान का विभाजन मेरे आंखो सामने नहीं हो सकता . जब गांधीजी हिन्दू -मुस्लिम ज़ंग को सुलझाने के लिये बंगाल गये हुए थे, तभी ईधर दिल्ली मे नेहरू जी और जिन्ना साहब के समर्थको ने गांधीजी के अनुपस्थिति मे देश के बटवारे पर मुहर लगा दी. आज दोनो देश करोडो रुपये सीमा की सुरक्षा पर खर्च करते है.
गांधीजी ने आज़ादी मिलने के बाद कहा था, कि जो आज़ादी हमे मिली है वह केवल राजनैतिक आज़ादी है, अभी सामाजिक आज़ादी बाकी हैं. और जब तक हमें सामाजिक आज़ादी नहीं मिलती, तब तक हमारी यह आज़ादी अधूरी हैं. आज भी हमें हमारे देश को गाँधीजी जैसा नेतृत्व की आवश्यकता है जो हमें सामाजिक आज़ादी दिला सके, और इस अधूरेपन को पूर्ण कर सकें.
गांधीजी ने उस समय अंग्रेज़ो के बनाए लगभग हर कानून तोड़े. अंग्रेज़ो ने उन्हे देशद्रोही समझा. उनको कई बार कारावास की सज़ा भुगतनी पड़ी, बड़ी-बड़ी यातनाए सहनी पड़ी , पर उनकी हिम्मत, निडरता, दृढ प्रतिज्ञा को कोई चुनौती नही दे पाया. अंग्रेज़ गाँधीजी का कुछ नहीं बिगाड़ सके, परंतु हमारा दुर्भाग्य यह रहा कि इसी देश का एक व्यक्ति ने गाँधीजी की हत्या कर दी. लेकिन गाँधीजी के विचार, उनका नेतृत्व और उनके दिखाये गये मार्ग सदा ही जीवित रहेंगे.
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