Monday 5 November 2012

भाग्य और कर्मो का हिसाब है दीपावली

Published in Dainik Awantika, 12 Nov. 2012.

दिवाली  या दीपावली यानि "दीपो की माला" का पर्व पाँच दिनों तक मनाया जाता है। यह पर्व फसल कटने  के समय आती है। इसकी शुरुवात "धन तेरस" से होती है। धन तेरस धनवन्तरी को समर्पित किया जाता है। यह मान्यता है कि इसी दिन धनवंतरी  समुन्द्र मंथन के दौरान अमृत का घड़ा लेकर प्रकट हुए थे। यह कृष्ण पक्ष के तेरहवे दिन पड़ता है, इसलिए इसे धन तेरस कहते है। इस दिन लोग बर्तन या पात्र खरीदना शुभ मानते है। पात्र   खरीदना इस ओर  इशारा करता है कि,  फसल की  कटाई  होने वाली है, और लक्ष्मी आने वाली है। लक्ष्मी और अन्न को  संचित करने के लिए पात्र  की आवश्यकता होती है। दूसरा  दिन नरक चतुर्दशी के  रूप में मनाया जाता है। इसी दिन नरकासुर नमक असुर का वद्ध श्री कृष्ण और उनकी पत्नी  सत्यभामा द्वारा किया गया था। इस दिन पत्नी अपने पति को तेल से मालिश कर स्नान कराती है। यह असुर संहार करने के बाद थकावट दूर करने का उपाय और असुरो पर विजय प्राप्त करने के पश्चात्  आनंद का द्योतक है। असुरो का निवास स्थान पताल लोक है, और फसल भी धरती के निचे से निकलते है। इस प्रकार असुर फसल के प्रतीक है। असुरो के पास संजीवनी विद्या होती है, यानि मृत्यु के पश्चात् जीने की विद्या, जैसे की फसल कटने के बाद भीं, इनके बिज में पुन: उपज की क्षमता होती है। असुरो का वद्ध अर्थात फसल की कटाई संपन्न।

तीसरे दिन, अमावश्या को लक्ष्मी पूजन की जाती है। लक्ष्मी को पाताल निवासिनी भी कहा जाता है, वह असुरो की बहन है। जब-जब लक्ष्मी को असुर पाताल लोक ले जाते है, और देवताओ पर अत्याचार करते है, तब-तब  उनका वद्ध श्री विष्णु या किसी अन्य देवता द्वारा किया जाता है, और लक्ष्मी को पुन: देव लोक लाया जाता  है। असुरो का वद्ध हो चूका है, यानि फसल की कटाई हो चुकी है, अन्न का भंडार यानि लक्ष्मी का प्रतिक। चूँकि लक्ष्मी का आगमन हो चूका है, इसीलिए अमावश्या के दिन लक्ष्मी के स्वागत में लक्ष्मी पूजन किया जाता है। लक्ष्मी कभी अकेले नहीं आती। यदि उनके  साथ कोई अन्य देवता को नहीं लाया जाता है तो, वह  अपने साथ अपनी बड़ी जुड़वाँ बहन कुलक्ष्मी को लाती है। इसलिए इस दिन लक्ष्मी और गणेश की पूजा एक  साथ की जाती है। कुलक्ष्मी मायने दरिद्रता,मनहुशी, ख़ामोशी, अँधेरा, कलह,आडंम्बर आदि नकारात्मक चीजे होती है। आमवश्या के दिन दीपक जलाते है, यानि अपने अंदर के अंधकार को मिटाते है। पटाखे फोड़ते है यानि, ख़ामोशी और मनहुशी तोड़ जश्न मनाते है।कुलक्ष्मी को हम अनादर नहीं कर सकते, इससे लक्ष्मी रूठ जाती है, इसलिए कुलक्ष्मी को धूम-धाम से विदा किया जाता है। मिठाईयां बाटी जाती है, लोग एक दुसरे से मिलते है। अमीर और गरीब सब एक द्रुष्टि से  देखे जाते है। मिठाइयो या उपहारों  का आदान-प्रदान, व्यापार का प्रतिक है। लक्ष्मी पूजन के दिन जुआ भी खेला जाता है। जुए में जितने के लिए, भाग्य और आत्म-दक्षता दोनों की जरुरत होती है। यह दर्शाता है कि  आने वाले व्यापार और फसल की उत्तमता अपने भाग्य और दक्षता पर निर्भर है।

चौथा दिन "बलि प्रतिप्रधा" के रूप में मनाया जाता है। इसी दिन श्री विष्णु ने वामन अवतार में बलि को पताल लोक में भेज दिए थे, जहाँ असुरो का निवास स्थान है। यह समाज की व्यवस्था और अधिकार का प्रतिक है। यह दर्शाता है कि हर किसी को अपने अधिकार क्षेत्र के रहकर समाज के प्रगति में सहयोग देना ही उत्तम है। पांचवा दिन "भाई-दूज" के रूप में मनाया जाता है। इस दिन यमराज अपने बहन यामिनी के घर उनकी  दशा जानने जाते है। यमराज सबके कर्मो और भाग्य का हिसाब रखते है। यदि उनकी बहन यामिनी, जो लक्ष्मी के रूप में दुसरे घर गयी हुई है, के साथ अच्छा व्यवहार या उनका दरुपयोग किया जाता है तो, वह दरुपयोगकर्ता यमराज के प्रकोप से नहीं बच सकता, यानि उसका कर्म और भाग्य दोनों बिगड़ जाते है और लक्ष्मी उनका साथ छोड़ देती है।




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